"बाबा जैमल सिंह"
जैसे जैसे हम भजन सुमिरन का अभ्यास करेंगें, मनुष्य जन्म के सुनहरे अवसर का लाभ उठाने की गहरी इच्छा हमारे कार्यों में साफ साफ दिखाई देने लगेगी। शुरू में हमें अपनी रूहानी तरक्की का अंदाज़ा आंतरिक अनुभवों से नही, बल्कि इस बात से होता है कि हमारे अंदर शांति और संतोष का भाव कितना बढ़ गया है। प्रारब्ध को भोगने के प्रति हमारी सोच कितनी बदल गयी है और दूसरे लोगों के प्रति हमारा व्यवहार कैसा है। हमारी तरक्की का पता इस बात से लगेगा कि क्या नामदान मिलने के बाद हम ज्यादा दयालु, ज़्यादा सहनशील हो गए हैं और दूसरों की सहायता करने में ज़्यादा उत्साह दिखाने लगे हैं?
क्या हमें केवल आंतरिक अनुभव प्राप्त करने में ही दिलचस्पी है?
क्या हमारे अंदर पहले से बेहतर इंसान बनने और दूसरों के साथ अधिक प्रेम और क्षमा के साथ पेश आने की गहरी इच्छा पैदा हुई है या नही?
यह स्वभाविक है कि हमारे भजन सुमिरन का प्रभाव हमारे जीवन के हर कार्य में दूसरों के साथ हमारे व्यवहार में साफ दिखाई देगा।
कोई भी व्यक्त्ति अपने आप में द्वीप नही है, अपने आप में पूर्ण नही है, हर व्यक्त्ति सृष्टिरूपी महाद्वीप का एक हिस्सा है।"
बाबाजी समझाते हैं कि हम दूसरों की सेवा और मदद इसलिए नही करते कि इससे हमारी रूहानी तरक्की होगी। बात इसके उलट है।ज्यों ज्यों भजन सुमिरन में तरक्की होती है, हमारे अंदर क़ुदरती तौर पर दूसरों की सेवा सहायता करने की इच्छा बढ़ती जाती है।
हमारे अंदर सेवा भाव जाग्रत होना इस इच्छा का ही परिणाम है। सेवा का अर्थ है संगत की सेवा द्वारा सतगुरु की सेवा करना। सेवा करनेवाले से ज़्यादा किसी दूसरे को इससे लाभ नही होता।
सेवा का मक़सद है अपने प्रेम का दायरा बड़ा करना। सच्ची सेवा प्रेम का वह जज़्बा है जो प्रेम को और अधिक बढ़ता है। यही सेवा है। भजन सुमिरन करते हुए धीरे धीरे हम उस अवस्था में आ जाते हैं कि हम अपना हर कार्य सतगुरु का कार्य समझकर करने लगते है।
राधा स्वामी जी...
जैसे जैसे हम भजन सुमिरन का अभ्यास करेंगें, मनुष्य जन्म के सुनहरे अवसर का लाभ उठाने की गहरी इच्छा हमारे कार्यों में साफ साफ दिखाई देने लगेगी। शुरू में हमें अपनी रूहानी तरक्की का अंदाज़ा आंतरिक अनुभवों से नही, बल्कि इस बात से होता है कि हमारे अंदर शांति और संतोष का भाव कितना बढ़ गया है। प्रारब्ध को भोगने के प्रति हमारी सोच कितनी बदल गयी है और दूसरे लोगों के प्रति हमारा व्यवहार कैसा है। हमारी तरक्की का पता इस बात से लगेगा कि क्या नामदान मिलने के बाद हम ज्यादा दयालु, ज़्यादा सहनशील हो गए हैं और दूसरों की सहायता करने में ज़्यादा उत्साह दिखाने लगे हैं?
क्या हमें केवल आंतरिक अनुभव प्राप्त करने में ही दिलचस्पी है?
क्या हमारे अंदर पहले से बेहतर इंसान बनने और दूसरों के साथ अधिक प्रेम और क्षमा के साथ पेश आने की गहरी इच्छा पैदा हुई है या नही?
यह स्वभाविक है कि हमारे भजन सुमिरन का प्रभाव हमारे जीवन के हर कार्य में दूसरों के साथ हमारे व्यवहार में साफ दिखाई देगा।
कोई भी व्यक्त्ति अपने आप में द्वीप नही है, अपने आप में पूर्ण नही है, हर व्यक्त्ति सृष्टिरूपी महाद्वीप का एक हिस्सा है।"
बाबाजी समझाते हैं कि हम दूसरों की सेवा और मदद इसलिए नही करते कि इससे हमारी रूहानी तरक्की होगी। बात इसके उलट है।ज्यों ज्यों भजन सुमिरन में तरक्की होती है, हमारे अंदर क़ुदरती तौर पर दूसरों की सेवा सहायता करने की इच्छा बढ़ती जाती है।
हमारे अंदर सेवा भाव जाग्रत होना इस इच्छा का ही परिणाम है। सेवा का अर्थ है संगत की सेवा द्वारा सतगुरु की सेवा करना। सेवा करनेवाले से ज़्यादा किसी दूसरे को इससे लाभ नही होता।
सेवा का मक़सद है अपने प्रेम का दायरा बड़ा करना। सच्ची सेवा प्रेम का वह जज़्बा है जो प्रेम को और अधिक बढ़ता है। यही सेवा है। भजन सुमिरन करते हुए धीरे धीरे हम उस अवस्था में आ जाते हैं कि हम अपना हर कार्य सतगुरु का कार्य समझकर करने लगते है।
राधा स्वामी जी...
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